हमारा मन वहीं लगता है, जहाँ हमारी अभिलाषित वस्तु होती है, जहाँ हमें अपनी रूचि के अनुकूल सुख, सौंदर्य, माधुर्य, ऐश्वर्य आदि दिखायी देते हैं | विचार करके देखने से पता लगता है कि जगत में हम जो प्रिय वस्तु, सुख, सौन्दर्य, माधुर्य, ऐश्वर्य आदि देखते है, उन सभी का पूर्ण अमित अनन्त भण्डार श्रीभगवान हैं | समस्त वस्तुएँ, समस्त गुण, समस्त सुख-सौन्दर्य भगवान् के किसी एक अंश के प्रतिबिम्बमात्र हैं | उस महान अनन्त अगाध सागर के सीकर-कण की छायामात्र हैं | हमें जो वस्तु जितनी चाहिए, जब चाहिए, वही वस्तु उतनी ही और उसी समय भगवान् में मिल सकती है; क्योंकि वे सदा-सर्वदा उनसे अनन्तरूप से भरी हैं और चाहे जितनी निकाल ली जानेपर भी कभी उनकी अनन्तता में कमी नहीं आती | अतएव हमारा मन जिस किस में लगता हो, उसी को दृढ विश्वास के साथ भगवान् में देखना चाहिए | फिर हम कभी भगवान् से अलग नहीं होंगे और भगवान् हमसे अलग नहीं होंगे; क्योंकि सबकुछ भगवान् से, भगवान् में है तथा भगवत्स्वरूप ही है | भगवान् ने कहा है—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे प्रणश्यति ||
(गीता ६ | ३०)
‘जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता | भाव यह कि वह मुझे देखता रहता है और मैं उसे देखता रहता हूँ |’
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे प्रणश्यति ||
(गीता ६ | ३०)
‘जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता | भाव यह कि वह मुझे देखता रहता है और मैं उसे देखता रहता हूँ |’
इसी के साथ हमें अपने को ऐसा बनाना चाहिए, जो भगवान् को अत्यन्त प्रिय हो | गीता में १२वें अध्याय के १३वें से १९वें श्लोक तक भगवान् ने अपने प्रिय भक्त के लक्षणों का वर्णन किया है | और अंत में कहा है—
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:॥
( गीता १२ | २०)
‘परन्तु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं अर्थात् उस प्रकार का अपना जीवन बनाने में तत्पर होते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं |’
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:॥
( गीता १२ | २०)
‘परन्तु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं अर्थात् उस प्रकार का अपना जीवन बनाने में तत्पर होते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं |’
इसलिए हमें अपने में उन सब भावों की दृढ़ स्थापना करनी चाहिए, जो भगवान् को प्रिय हैं | ऐसा होनेपर जब भगवान हमसे प्रेम करने लगेंगे, उनका मन हममें लगा रहेगा—(प्रेम तो वे अब भी करते हैं | परन्तु हमें उनका अनुभव नहीं होता, उनके अनुकूल आचरण करने से अर्थात् उन सब प्रिय गुणों को जीवन में उतरने से हमें भगवान् के प्रेम का अनुभव होने लगेगा) तब हमारा मन भी उसमें लगा रहेगा | हमें तो बस, विनोदपूर्वक भगवान् से यही भाव रखना चाहिए और यही मन-ही-मन कहना चाहिए कि ‘प्रभो ! न तो मैं दूसरों को देखूंगा और न आपको देखने दूंगा |’
आवहु मेरे नयन में पलक बन्द करि लेउँ |
ना मैं देखौं और कौं ना तोहि देखन देउँ ||
नारायण जाके हृदै सुन्दर श्याम समाय |
ना मैं देखौं और कौं ना तोहि देखन देउँ ||
नारायण जाके हृदै सुन्दर श्याम समाय |
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